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Saturday, December 25, 2010

MARRY CHRISTMAS

Wish you all A Merry Christmas,

May the Joys of the season


Fill your heart with goodwill and cheer.


May the chimes of Christmas glory


Add up more shine and spread

Smiles across the miles,



To-day & In the New Year....................

Saturday, December 18, 2010

संकीर्ण दायरे से बाहर निकल रही है पत्रकारिता

'राष्ट्रीय सुरक्षा' और 'राष्ट्रीय हितों' के संकीर्ण दायरे से बाहर निकल रही है पत्रकारिता 

 
विकीलिक्स ने मुख्यधारा की पत्रकारिता को निर्णायक रूप से बदलने की जमीन तैयार कर दी है. हम-आप आज तक पत्रकारिता को जिस रूप में जानते-समझते रहे हैं, विकीलिक्स के बाद यह तय है कि वह उसी रूप में नहीं रह जायेगी. अभी तक हमारा परिचय और साबका मुख्यधारा की जिस कारपोरेट पत्रकारिता से रहा है, वह अपने मूल चरित्र में राष्ट्रीय, बड़ी पूंजी और विज्ञापन आधारित और वैचारिक तौर पर सत्ता प्रतिष्ठान के व्यापक हितों के भीतर काम करती रही है लेकिन विकीलिक्स ने इस सीमित दायरे को जबरदस्त झटका दिया है. यह कहना तो थोड़ी जल्दबाजी होगी कि यह प्रतिष्ठानी पत्रकारिता पूरी तरह से बदल या खत्म हो जायेगी लेकिन इतना तय है कि विकीलिक्स के खुलासों के बाद इस पत्रकारिता पर बदलने का दबाव जरूर बढ़ जायेगा.

असल में, विकीलिक्स के खुलासों ने दुनिया भर में खासकर अमेरिकी सत्ता प्रतिष्ठान में जिस तरह से खलबली मचाई हुई है, वह इस बात का सबूत है कि विकीलिक्स के असर से मुख्यधारा और उससे इतर वैकल्पिक पत्रकारिता के स्वरुप, चरित्र और कलेवर में आ रहे परिवर्तनों का कितना जबरदस्त प्रभाव पड़ने लगा है. इसमें कोई दो राय नहीं है कि विकीलिक्स की पत्रकारिता शुरूआती और सतही तौर पर चाहे जितनी भी ‘अराजक’, ‘खतरनाक’ और ‘राष्ट्रहित’ को दांव पर लगानेवाली दिखती हो लेकिन गहराई से देखें तो उसने पहली बार राष्ट्रीय सीमाओं और राष्ट्रीय सुरक्षा के संकीर्ण और काफी हद तक अलोकतांत्रिक दायरे को जोरदार झटका दिया है.

इस अर्थ में, यह सच्चे मायनों में २१ वीं सदी और भूमंडलीकरण के दौर की वास्तविक वैश्विक पत्रकारिता है. यह पत्रकारिता राष्ट्र और उसके संकीर्ण बंधनों से बाहर निकलने का दु:साहस करती हुई दिखाई दे रही है, भले ही उसके कारण देश और उसकी सरकार को शर्मिंदा होना पड़ रहा है.

 
सच पूछिए तो अभी तक विकीलिक्स ने जिस तरह के खुलासे किए हैं, उस तरह के खुलासे आमतौर पर मुख्यधारा के राष्ट्रीय समाचार मीडिया में बहुत कम लगभग अपवाद की तरह दिखते थे. लेकिन विकीलिक्स ने उस मानसिक-वैचारिक संकोच, हिचक और दबाव को तोड़ दिया है जो अक्सर संपादकों को ‘राष्ट्रीय हितों और सुरक्षा’ के नाम पर इस तरह की खबरों को छापने और प्रसारित करने से रोक दिया करता था.

दरअसल, राष्ट्र के दायरे में बंधी पत्रकारिता पर यह दबाव हमेशा बना रहता है कि ऐसी कोई भी जानकारी या सूचना जो कथित तौर पर ‘राष्ट्रहित’ और ‘राष्ट्रीय सुरक्षा’ के अनुकूल नहीं है, उसे छापा या दिखाया न जाए. इस मामले में सबसे चौंकानेवाली बात यह है कि आमतौर पर ‘राष्ट्रहित’ और ‘राष्ट्रीय सुरक्षा’ की परिभाषा सत्ता प्रतिष्ठान और शासक वर्ग तय करता रहा है. वही तय करता रहा है कि क्या ‘राष्ट्रहित’ में है और किससे ‘राष्ट्रीय सुरक्षा’ को खतरा है?

सरकारें और कारपोरेट मीडिया भले ही लोकतंत्र, अभिव्यक्ति की आज़ादी, पारदर्शिता, जवाबदेही, सूचना के अधिकार, मानव अधिकारों जैसी बड़ी-बड़ी बातें करते न थकते हों लेकिन सच्चाई यही है कि शासक वर्ग और सत्ता प्रतिष्ठान आम नागरिकों से जहां तक संभव हो, कभी ‘राष्ट्रहित’ और कभी ‘राष्ट्रीय सुरक्षा’ के नाम पर सूचनाएं छुपाने की कोशिश करते रहे हैं.

इसकी वजह किसी से छुपी नहीं है. कोई भी सरकार नहीं चाहती है कि नागरिकों को वे सूचनाएं मिलें जो उनके वैध-अवैध कारनामों और कार्रवाइयों की पोल खोले. सच यह है कि सरकारें ‘राष्ट्रीय हित और सुरक्षा’ के नाम पर बहुत कुछ ऐसा करती हैं जो वास्तव में, शासक वर्गों यानी बड़ी कंपनियों, राजनीतिक वर्गों, ताकतवर लोगों और हितों के हित और सुरक्षा में होती हैं.

असल में, शासक वर्ग एक एक आज्ञाकारी प्रजा तैयार करने के लिए हमेशा से सूचनाओं को नियंत्रित करते रहे हैं. वे सूचनाओं को दबाने, छुपाने, तोड़ने-मरोड़ने से लेकर उनकी अनुकूल व्याख्या के जरिये ऐसा जनमत तैयार करते रहे हैं जिससे उनके फैसलों और नीतियों की जनता में स्वीकार्यता बनी रहे. मुख्यधारा का मीडिया भी शासक वर्गों के इस वैचारिक प्रोजेक्ट में शामिल रहा है.

 
लेकिन विकीलिक्स ने सूचनाओं के मैनेजमेंट की इस आम सहमति को छिन्न-भिन्न कर दिया है. इसकी एक बड़ी वजह यह है कि वह किसी एक देश और उसकी राष्ट्रीयता से नहीं बंधा है. वह सही मायनों में वैश्विक या ग्लोबल है. यही कारण है कि वह राष्ट्र के दायरे से बाहर जाकर उन लाखों अमेरिकी केबल्स को सामने लाने में सफल रहा है जिसमें सिर्फ अमेरिका ही नहीं, अनेक राष्ट्रों की वास्तविकता सामने आ सकी है.

राष्ट्रों के संकीर्ण दायरे को तोड़ने में विकीलिक्स की सफलता का अंदाज़ा इस तथ्य से भी लगाया जा सकता है कि जूलियन असान्जे ने केबल्स को लीक करने से पहले उसे एक साथ अमेरिका, ब्रिटेन, फ़्रांस और जर्मनी के चार बड़े अख़बारों को मुहैया कराया और उन अख़बारों ने उसे छापा भी.

यह इन अख़बारों की मजबूरी थी क्योंकि अगर वे उसे नहीं छापते तो कोई और छापता और दूसरे, उन तथ्यों को सामने आना ही था, उस स्थिति में उन अख़बारों की साख खतरे में पड़ जाती. यह इस नए मीडिया की ताकत भी है कि वह तमाम आलोचनाओं के बावजूद मुख्यधारा के समाचार मीडिया का भी एजेंडा तय करने लगा है.

 
यह मामूली बात नहीं है कि विकीलिक्स से नाराजगी के बावजूद मुख्यधारा के अधिकांश समाचार माध्यमों ने उसकी खबरों को जगह दी है. यह समाचार मीडिया के मौजूदा कारपोरेट माडल की जगह आम लोगों के सहयोग और समर्थन पर आधारित विकीलिक्स जैसे नए और वैकल्पिक माध्यमों की बढ़ती ताकत और स्वीकार्यता की भी स्वीकृति है.

यहां यह उल्लेख करना जरूरी है कि पिछले डेढ़-दो दशकों से मुख्यधारा की कारपोरेट पत्रकारिता के संकट की बहुत चर्चा होती रही है. लेकिन यह संकट उनके गिरते सर्कुलेशन और राजस्व से ज्यादा उनकी गिरती साख और विश्वसनीयता से पैदा हुआ है. विकीलिक्स जैसे उपक्रमों का सामने आना इस तथ्य का सबूत है कि मुख्यधारा की पत्रकारिता ने खुद को सत्ता प्रतिष्ठान के साथ इस हद तक ‘नत्थी’ (एम्बेडेड) कर लिया है कि वहां इराक और अफगानिस्तान जैसे बड़े मामलों के सच को सामने लाने की गुंजाईश लगभग खत्म हो गई है.

 
ऐसे में, बड़ी पूंजी की जकडबंदी से स्वतंत्र और लोगों के समर्थन पर खड़े विकीलिक्स जैसे उपक्रमों ने नई उम्मीद जगा दी है. निश्चय ही, विकीलिक्स से लोगों में सच जानने की भूख और बढ़ गई है. इसका दबाव मुख्यधारा के समाचार माध्यमों को भी महसूस हो रहा है. जाहिर है कि विकीलिक्स के बाद पत्रकारिता वही नहीं रह जायेगी/नहीं रह जानी चाहिए.

('राष्ट्रीय सहारा' के परिशिष्ट हस्तक्षेप में ११ दिसंबर को प्रकाशित )

Friday, December 17, 2010

मुझे जन्म दो, मुझे जन्म दो |

PLZ SAVE GIRL CHILD PLZ PLZ PLZ.................................
हुमक-हुमक गाने दो मुझको ,
यूँ मत मर जाने दो मुझको ,
जीवन भर आभार करुँगी ,
माँ मैं तुझसे प्यार करुँगी ,
मैं तेरी ही बेटी हूँ माँ. 
मुझे जन्म दो , मुझे जन्म दो. 

मैं भी तो हूँ अंश तुम्हारा, 
मैं भी तो हूँ वंश तुम्हारा, 
पापा को समझाकर देखो, 
सारी बात बताकर देखो ,
बिगड़ रहा है अनुपात बताओ ,
क्या होंगे हालत बताओ. 
फिर भी अगर न माने पापा, 
रोऊँगी मनुहार करुँगी, 
जीवन भर आभार करुँगी , 
मुझे जन्म दो , मुझे जन्म दो.

लक्ष्मीबाई मदर टेरेसा ,
क्या कोई बन पाया वैसा,
ये बातें बतलाओ अम्मा ,
दादी को समझाओ अम्मा ,
मैं नन्ही पोती, दादी के 
सब  गुण अंगीकार करुँगी 
जीवन भर आभार करुँगी ,
मुझे जन्म दो , मुझे जन्म दो.

अन्तरिक्ष में जाकर के माँ ,
रोशन तेरा नाम करुँगी,
जो-जो बेटे कर सकते हैं ,
हर वो अच्छा काम करुँगी , 
नाम से तेरे जानी जाऊं, 
ये मैं बारम्बार करुँगी ,
माँ मैं तुमसे प्यार करुँगी 
मुझे जन्म दो , मुझे जन्म दो.

Monday, November 22, 2010

हमसफ़र


हम समझते थे उम्र भर का हमसफ़र जिसे......

ज़ंजीर खींच कर वो मुसाफिर उतर गया...

Saturday, November 20, 2010

"हमारा अतुल्य भारत "

आज ना जाने क्यों किसी एक दोस्त के एक एस ऍम एस (मेसेज) ने मन को झंझोड़ कर रख दिया | वो उस मेसेज के माध्यम से शायद मुझसे कुछ कहना चाहता था या कुछ पूछना चाहता था | 

उसने मेरे सामने भारत की वो तस्वीर रखने की कोशिश की जिसे शायद हम देखते हुए भी अनदेखा सा करते हैं |
कुछ बातें जो उसकी मुझे छु गयीं उन्हें यहाँ वर्णित कर रहा हूँ |

भारत जहाँ पिज्जा तो ३० मिनिट में पहुचने की गारेंटी हैं, 

पर कोई मरता भी रहे तो भी एम्बुलेंस कब पहुचेगी उसका कोई भरोशा नहीं |



भारत जहाँ कार लोन  तो सस्ता है


भारत जहाँ सिम कार्ड तो फ्री में मिल जायेगा ,

मगर चावल ४० रुपये किलो हो गया |



जहाँ दिलों में मिठास तो है, मगर शक्कर के दामों ने मुह की मिठाश छीन ली |

भारत जहाँ दुर्गा को देवी की तरह तो पूजा जाता है ,


 मगर घर में जब बेटी पैदा हो जाये तो उसे मार  दिया जाता हैं |

 भारत जहाँ ओलंपिक में निशानेवाज़ी में पदक जीतने वाले को तो ३ करोड़ दिया जाते हैं,

 पर यदि सरहद पर लड़ते हुए कोई सिपाही किसी आतंकवादी की गोली से शहीद हो जाता है तो उसे सिर्फ एक लाख रुपये दिया जाते हैं |



तो हुआ ना अतुल्य भारत |  

Wednesday, November 17, 2010

"इंतज़ार"
एक अनजाने सफ़र में चले जा रहा हूँ मैं, 
बीच राह में खड़े तेरा इंतज़ार किये जा रहा हूँ मैं |
----०----
ना मंज़िल का पता है मुझे, ना तेरे आने की खबर , 
फिर भी ना जाने क्यूँ तेरा इंतज़ार किये जा रहा हूँ मैं |
----०----
मैं जानता ही नहीं इस सफर का अन्त क्या होगा ,
फिर भी ना जाने क्यूँ ये सफ़र तय किये जा रहा हूँ मैं ||
----०----
ना दुनिया से कोई गिला है मुझे, ना तुझसे कोई शिकायत,
फिर भी ना जाने क्यूँ खुद से शिकायत किये जा रहा हूँ मैं ||
----०----
बहुत डरता हूँ मैं तुझसे दूर जाने से , 

फिर भी ना जाने क्यूँ  तुझसे दूर हुए जा रहा हूँ मैं ||
----०----

पर अब भी आस है मुझे तेरे लौट आने की , 
इसलिए अब भी तेरा इंतज़ार किये जा रहा हूँ मैं ||
----०----
                                                                                राज़ 
ए- मोहब्बत तेरे अंजाम पे रोना आया,
जाने क्यों आज तेरे नाम पे रोना आया ||
-----०----
यूँ तो हर शाम मेरी उम्मीदों में गुज़र जाती थी,
पर आज कुछ बात है जो इस शाम पे रोना आया ||
-----०----
कभी तकदीर का मातम कभी, कभी दुनिया का गिला ,
मंज़िल- ए - इश्क में हर गम पे मुझे रोना आया ||
-----०----
जब भी हुआ ज़िक्र ज़माने में मोहब्बत का मेरी,
मुझको अपने दिल-ए-नादान पे रोना आया ||
-----०----

ए- मोहब्बत तेरे अंजाम पे रोना आया,
जाने क्यों आज तेरे नाम पे रोना आया ||
-----०----


                                                                                                     राज़ 

हम छायादार पेड़, ज़माने के काम आये,  

और जब सूखे तो जलाने के काम आये ||

"सजा " 

कोई देखे तो ज़रा वो कैसी सजा देता है , 

मेरा दुश्मन मुझे जीने की दुआ देता है || 
----०---- 

बुरे हालातों से तो तंग आकर हर कोई , 

वक़्त के आगे सिर अपना झुका देता ||
----०----

किसलिए फैलाऊ हाथ मैन गैरों के सामने , 

रोटी दो वक़्त की जब मुझको खुदा देता है ||
----०----

तो क्या हुआ जो तूने भी उस वक़्त छुड़ाया अपना दामन , 

बुरे वक़्त में तो साया भी दगा देता है ||
----०----

कोई मंजिल तक नहीं पहुंचाता ले जाकर "राज़", 


हर कोई बस दूर से ही राह दिखा देता है ||
----०----

यूँ तेज़ रफ्तार से ना चलो ए- हसीन सूरत वालों , 

एक हादसा चेहरे की पहचान मिटा देता है ||
----०----

यूँ तो अब तमन्ना ही ना रही इस दुनिया में जीने की , 

पर मेरा दुश्मन मुझे अब भी जीने की दुआ देता है ||

                                                                                                           राज़

Saturday, November 13, 2010

LOVE LOVE LOVE

Nothing in this world can explain how I feel
I can’t believe the love I have for you is oh so real
You are my pride and joy and I adore you so much
It’s not just your personality it’s also your gentle touch
Everything about you is just so wonderful
The time we spend together is just unbelievable
You are a part of me, and without you I’m no good
I will do any and everything to stay with you just like I know you would
The love of my life that I adore
Each day I see you I Love you More & More

Thursday, October 7, 2010

दर्द

कौन समझेगा इस ज़माने में, 
दर्द कितना है मुस्कुराने में |
वो ही तूफ़ान आ गया  फिर से, 
और हम लगे हैं दिए जलाने में |
ज़िन्दगी एक क़र्ज़ है जिसको,
उम्र कम पड़ जाये चुकाने में |
घर से निकले थे जो इबादत के लिए , 
वो ही अब बैठे  हैं शराब खाने में | 
हंसते-हंसते राज़ के दिन बीते ,
रात बीती गज़ल सुनाने में | 
                                                             राज़ 

Tuesday, October 5, 2010

इंतज़ार

तेरे इंतज़ार में यूँ तड़पती रही "ज़िन्दगी"
जैसे रफ्ता - रफ्ता मोम सी पिघलती रही  "ज़िन्दगी" |
जब भी हद से गुजरता रहा यादों का मौसम,
छुप-छुप के तन्हा रोटी रही  "ज़िन्दगी" |
दिल जब भी हो उदासी के साये में ,
दर्द का कोई नग्मा गति रही  "ज़िन्दगी" |
कोई तो मिलेगा  "ज़िन्दगी" इन की हसीं राहों में,
न जाने क्यूँ इसी उम्मीद पे आगे बढती रही  "ज़िन्दगी" |
यूँ तो जहान में कई रास्ते हैं राज़ तेरे वास्ते ,
अब देखें किस राह में ले जाती है "ज़िन्दगी" |
अब जब तू ही नहीं कोई रंज ही नहीं,
कोरे कागज़ सी हो जाती है जिंदगी
जब कोई आस ही ना हो दिल में 'राज़'
तब जिंदा लाश सी हो जाती है"ज़िन्दगी" | 

Monday, October 4, 2010

BAhut din huye koi sher jangal me nahi choda to ye lo mera sher.

मैंने जहान के वास्ते, आग अपने घर को लगा दी.
रोशन हुआ जहां, और मैं बेघर हो गया |

Wednesday, September 22, 2010

यात्रा इंदिरा गाँधी राष्ट्रीय मानव संग्रहालय की

बैसे तो रविवार का दिन सभी के लिए ख़ास होता है पर हमारे लिए ये कुछ ज्यादा ही ख़ास था , मौका था IGRMS  (National Museum of Mankind) की यात्रा का | 

दिन बड़ा ही खुशगवार था, आसमान में काले बादल  थे, थोड़ी बहुत बूंदा बांदी हो रही थी, हम अपने कॉलेज(माखन लाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता विश्विद्यालय ) से सभी साथियों और  हमारे विभागअध्यक्ष श्री पी.पी. सिंह सर के साथ इंदिरा गाँधी राष्ट्रीय मानव संग्रहालय के लिए निकल पड़े | जैसे ही हम IGRMS  पहुंचे संस्थांन के PRO श्री सूर्य कुमार पांडे जी एवं श्री रियाज़ खान (अन्थ्रोपोलोगिस्ट) से हमारी मुलाकात हुई | 
सच मानिये जिस तरह कि उत्सुकता हमें National Museum of Mankind को जानने कि थी उतनी ही उत्सुकता श्री पांडे जी को उस संसथान के बारे में हमें जानकारी देने कि थी,  चूँकि हम सभी पत्रकारिता के छात्र थे इस लिहाज से हम सभी में हर एक चीज को गहराई से जानने  की ललक थी | 

हमने संग्रहालय को देखने कि शुरुआत की मानव सभ्यता की शुरुआत को दर्शाने वाले उन पत्थरों पर बनी कलाकृतियों को देखकर, ऐसा लगा मानो समय समय पर हमारे ही किन्हीं पूर्वजों ने हमें उनके समय कि याद दिलाने के लिए पत्थरों पर इन कलाकृतियों को उकेरा हो |

 उन प्राचीनतम कलाकृतियों को देखने के बाद समय था भारत के विभिन्न दूरस्थ क्षेत्रों में बसने वाली जनजातियों के आवासों को देखने कि जिन्हें उन्ही लोगों ने यहाँ आकर तैयार किया, सच एक एक घर से उस  क्षेत्र की मिट्टी कि खुशबू आ रही थी, एक ही जगह पर भारत के विभिन्न प्रान्तों कि विभिन्न जनजातियों कि आवासीय शैली को देख पाना हमारे लिए एक अनूठा अनुभव था| हमने वहां टोडा जनजाति, कछहारी जनजाति, वारली , गदबा , कोटा,  चौधरी, अगरिया, थारू, भील, जातपू, कमार, संथाल, रजबार, भूमिज, कबुई नागा, गालो, जेमी नागा, दशहरा रथ , करबी, माडिया , घातुल  आदि जनजाति के रहन सहन के बारे में जाना |

 जिस तरह के जीवन्त ये आवास लगे हमें लगा मानो यहाँ वे लोग रहते हैं , मेरे मन में एक कोतुहल सा मचा हुआ था कि किसी मकान को बना लेना तो बहुत आसन है पर उसे इतने लम्बे समय तक संरक्षित कैसे रखा जा सकता है, मैं सोच ही रहा था कि अचानक पांडे जी ने बताया कि वर्ष में कुछ समय के लिए वे लोग यहाँ आते हैं और रहते हैं तब कुछ दिनों के लिए ही सही पर ये मकान घर में तब्दील हो जाता है, हालकी इन मकानों कि पूरी देखभाल की जाती है | मकानों के आँगन कि लिपाई घर कि पुताई आदि सभी बातों का पूरा ध्यान रखा जाता है | चलते चलते करीब ४ घंटे बीत चुके हैं | 
अब  बहुत देर हो गयी थी और हम सभी साथियों को भूख भी लग आई थी तो हमने कुछ और न देखते हुए पहले भोजन करने कि ठान ली, हम सभी IGRMS की ही कैंटीन में अपना भोजन कर रहे थे कैंटीन भी किसी हिल स्टेशन के रेसोर्ट से कम नहीं लग रही थी, खुशगबार मौसम उस पर थोड़ी थोड़ी बारिस और खुले वातावरण में लंच एक अलग ही आनंद दे रहा था |

लंच के बाद अब समय था वीथी संकुल देखने का, वीथी संकुल एक संग्रहालय जिसमे १२ गैलरी हैं जिनमे हर गैलरी में अलग - अलग संस्कृति कि अमिट छापों को संजो कर रखा गया है| १२००० वर्ग मीटर में बने इस संकुल में एक ऑडिटोरियम हॉल, एक पुस्तकालय तथा अन्य सभागार हैं | ऑडिटोरियम हॉल में २५० दर्शकों के बैठने कि व्यवस्था है | 

अब हम वीथी संकुल से निकल कर आगे बढे तटीय गावों को देखने | भोपाल की बड़ी झील के किनारे बनाये गए ये तटीय गाव देखने में बिलकुल केरल, तमिलनाडु की याद दिला रहे थे बैसे ही मातृत्व प्रधान घर , बैसी ही नोकाएं, जिनमे से सबसे ज्यादा ध्यानाकर्षण तो सर्प नोका ने किया | थोडा आगे बढे तो हम मरुस्थलीय गावों में पहुच गए, जहाँ राजस्थानी परंपरा का घर देखकर बस मन में यही आवाज़ सुने पड़ी "केसरिया बालम आवो रे , पधारो मरे देश" खैर इन सब के बाद समय था अपने भोपाल को और अच्छे से छायाचित्रों के माध्यम से जानने का सो हम पहुच गए भोपाल गैलरी, यहाँ चित्रों के माध्यम से हमने भोपाल को और करीब से जाना| 
भोपाल गैलरी के बाद समय था, मानव संग्रहालय को विडिओ के माध्यम से documentary के रूप में देखने का| इस documentary के बाद एक और documentary देखने मिली जिसका नाम था "मैन इन सर्च ऑफ़ मैन" | एक ऐसा चलचित्र जिसके माध्यम से अंदमान निकोबार द्वीप समूहों में रहने वाले आदिवासीय जनजातियों के रहन सहन जीवन शैली के बारे में जानने का मौका मिला, वहीं हमारी मुलाकात श्री अशोक शर्मा जी से हुई जो संग्रहालय समिति सदस्य हैं |  

अब समय था एक नृत्य नाटिका देखने का जिसे देखने हमारे साथ शहर के कई प्रबुद्ध जन भी उपस्थित थे | सच ऐसी नृत्य नाटिका का प्रदर्शन वीथी संकुल के ऑडिटोरियम में हुआ जिसे देख कर मन में देश भक्ति कि भावना को पुनः जाग्रत कर दिया | यूँ तो हम देश भक्त हैं पर कहीं हम अपनी रोजमर्रा की जिंदगी उन देशभक्तों को भूलने लगे हैं | खैर हम बात कर रहे थे नृत्य नाटिका की, पहली नर्त्य नाटिका श्रीमद भगवद गीता के कृष्ण-अर्जुन वृत्तान्त पर थी और दूसरी जिसने सभी को मंत्र मुग्ध कर दिया वह थी "खूब लड़ी मर्दानी" जिसे कीर्ति  बैले एंड परफोर्मिंग आर्ट्स द्वारा प्रस्तुत किया गया | 

इन सब के बीच हमें ये ध्यान ही नहीं रहा की रात हो चुकी है और सभी को घर भी जाना है, अब हमारी आज की यात्रा आखिरी पड़ाव पर थी, सभी ने जितना आनंद और शिक्षा आज इस संग्रहालय से ली जाहिर है कि ये आनंद और शिक्षा जीवन के किसी न किसी मोड़ पर हमारे काम आने वाली हैं | 
आज पहली बार मुझे ऐसा लगा जैसे सभी सरे दिन के थके होने के बाद भी स्फूर्तिमंद थे | आज मौसम ने भी हमारा खूब साथ दिया | 
अंत में हम IGRMS से दोबारा आने की इच्छा लिए अपने अपने गंतव्य की और रवाना हो गए..................