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Thursday, October 7, 2010

दर्द

कौन समझेगा इस ज़माने में, 
दर्द कितना है मुस्कुराने में |
वो ही तूफ़ान आ गया  फिर से, 
और हम लगे हैं दिए जलाने में |
ज़िन्दगी एक क़र्ज़ है जिसको,
उम्र कम पड़ जाये चुकाने में |
घर से निकले थे जो इबादत के लिए , 
वो ही अब बैठे  हैं शराब खाने में | 
हंसते-हंसते राज़ के दिन बीते ,
रात बीती गज़ल सुनाने में | 
                                                             राज़ 

Tuesday, October 5, 2010

इंतज़ार

तेरे इंतज़ार में यूँ तड़पती रही "ज़िन्दगी"
जैसे रफ्ता - रफ्ता मोम सी पिघलती रही  "ज़िन्दगी" |
जब भी हद से गुजरता रहा यादों का मौसम,
छुप-छुप के तन्हा रोटी रही  "ज़िन्दगी" |
दिल जब भी हो उदासी के साये में ,
दर्द का कोई नग्मा गति रही  "ज़िन्दगी" |
कोई तो मिलेगा  "ज़िन्दगी" इन की हसीं राहों में,
न जाने क्यूँ इसी उम्मीद पे आगे बढती रही  "ज़िन्दगी" |
यूँ तो जहान में कई रास्ते हैं राज़ तेरे वास्ते ,
अब देखें किस राह में ले जाती है "ज़िन्दगी" |
अब जब तू ही नहीं कोई रंज ही नहीं,
कोरे कागज़ सी हो जाती है जिंदगी
जब कोई आस ही ना हो दिल में 'राज़'
तब जिंदा लाश सी हो जाती है"ज़िन्दगी" | 

Monday, October 4, 2010

BAhut din huye koi sher jangal me nahi choda to ye lo mera sher.

मैंने जहान के वास्ते, आग अपने घर को लगा दी.
रोशन हुआ जहां, और मैं बेघर हो गया |