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Thursday, October 7, 2010

दर्द

कौन समझेगा इस ज़माने में, 
दर्द कितना है मुस्कुराने में |
वो ही तूफ़ान आ गया  फिर से, 
और हम लगे हैं दिए जलाने में |
ज़िन्दगी एक क़र्ज़ है जिसको,
उम्र कम पड़ जाये चुकाने में |
घर से निकले थे जो इबादत के लिए , 
वो ही अब बैठे  हैं शराब खाने में | 
हंसते-हंसते राज़ के दिन बीते ,
रात बीती गज़ल सुनाने में | 
                                                             राज़ 

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