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Thursday, October 7, 2010

दर्द

कौन समझेगा इस ज़माने में, 
दर्द कितना है मुस्कुराने में |
वो ही तूफ़ान आ गया  फिर से, 
और हम लगे हैं दिए जलाने में |
ज़िन्दगी एक क़र्ज़ है जिसको,
उम्र कम पड़ जाये चुकाने में |
घर से निकले थे जो इबादत के लिए , 
वो ही अब बैठे  हैं शराब खाने में | 
हंसते-हंसते राज़ के दिन बीते ,
रात बीती गज़ल सुनाने में | 
                                                             राज़ 

Tuesday, October 5, 2010

इंतज़ार

तेरे इंतज़ार में यूँ तड़पती रही "ज़िन्दगी"
जैसे रफ्ता - रफ्ता मोम सी पिघलती रही  "ज़िन्दगी" |
जब भी हद से गुजरता रहा यादों का मौसम,
छुप-छुप के तन्हा रोटी रही  "ज़िन्दगी" |
दिल जब भी हो उदासी के साये में ,
दर्द का कोई नग्मा गति रही  "ज़िन्दगी" |
कोई तो मिलेगा  "ज़िन्दगी" इन की हसीं राहों में,
न जाने क्यूँ इसी उम्मीद पे आगे बढती रही  "ज़िन्दगी" |
यूँ तो जहान में कई रास्ते हैं राज़ तेरे वास्ते ,
अब देखें किस राह में ले जाती है "ज़िन्दगी" |
अब जब तू ही नहीं कोई रंज ही नहीं,
कोरे कागज़ सी हो जाती है जिंदगी
जब कोई आस ही ना हो दिल में 'राज़'
तब जिंदा लाश सी हो जाती है"ज़िन्दगी" | 

Monday, October 4, 2010

BAhut din huye koi sher jangal me nahi choda to ye lo mera sher.

मैंने जहान के वास्ते, आग अपने घर को लगा दी.
रोशन हुआ जहां, और मैं बेघर हो गया |

Wednesday, September 22, 2010

यात्रा इंदिरा गाँधी राष्ट्रीय मानव संग्रहालय की

बैसे तो रविवार का दिन सभी के लिए ख़ास होता है पर हमारे लिए ये कुछ ज्यादा ही ख़ास था , मौका था IGRMS  (National Museum of Mankind) की यात्रा का | 

दिन बड़ा ही खुशगवार था, आसमान में काले बादल  थे, थोड़ी बहुत बूंदा बांदी हो रही थी, हम अपने कॉलेज(माखन लाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता विश्विद्यालय ) से सभी साथियों और  हमारे विभागअध्यक्ष श्री पी.पी. सिंह सर के साथ इंदिरा गाँधी राष्ट्रीय मानव संग्रहालय के लिए निकल पड़े | जैसे ही हम IGRMS  पहुंचे संस्थांन के PRO श्री सूर्य कुमार पांडे जी एवं श्री रियाज़ खान (अन्थ्रोपोलोगिस्ट) से हमारी मुलाकात हुई | 
सच मानिये जिस तरह कि उत्सुकता हमें National Museum of Mankind को जानने कि थी उतनी ही उत्सुकता श्री पांडे जी को उस संसथान के बारे में हमें जानकारी देने कि थी,  चूँकि हम सभी पत्रकारिता के छात्र थे इस लिहाज से हम सभी में हर एक चीज को गहराई से जानने  की ललक थी | 

हमने संग्रहालय को देखने कि शुरुआत की मानव सभ्यता की शुरुआत को दर्शाने वाले उन पत्थरों पर बनी कलाकृतियों को देखकर, ऐसा लगा मानो समय समय पर हमारे ही किन्हीं पूर्वजों ने हमें उनके समय कि याद दिलाने के लिए पत्थरों पर इन कलाकृतियों को उकेरा हो |

 उन प्राचीनतम कलाकृतियों को देखने के बाद समय था भारत के विभिन्न दूरस्थ क्षेत्रों में बसने वाली जनजातियों के आवासों को देखने कि जिन्हें उन्ही लोगों ने यहाँ आकर तैयार किया, सच एक एक घर से उस  क्षेत्र की मिट्टी कि खुशबू आ रही थी, एक ही जगह पर भारत के विभिन्न प्रान्तों कि विभिन्न जनजातियों कि आवासीय शैली को देख पाना हमारे लिए एक अनूठा अनुभव था| हमने वहां टोडा जनजाति, कछहारी जनजाति, वारली , गदबा , कोटा,  चौधरी, अगरिया, थारू, भील, जातपू, कमार, संथाल, रजबार, भूमिज, कबुई नागा, गालो, जेमी नागा, दशहरा रथ , करबी, माडिया , घातुल  आदि जनजाति के रहन सहन के बारे में जाना |

 जिस तरह के जीवन्त ये आवास लगे हमें लगा मानो यहाँ वे लोग रहते हैं , मेरे मन में एक कोतुहल सा मचा हुआ था कि किसी मकान को बना लेना तो बहुत आसन है पर उसे इतने लम्बे समय तक संरक्षित कैसे रखा जा सकता है, मैं सोच ही रहा था कि अचानक पांडे जी ने बताया कि वर्ष में कुछ समय के लिए वे लोग यहाँ आते हैं और रहते हैं तब कुछ दिनों के लिए ही सही पर ये मकान घर में तब्दील हो जाता है, हालकी इन मकानों कि पूरी देखभाल की जाती है | मकानों के आँगन कि लिपाई घर कि पुताई आदि सभी बातों का पूरा ध्यान रखा जाता है | चलते चलते करीब ४ घंटे बीत चुके हैं | 
अब  बहुत देर हो गयी थी और हम सभी साथियों को भूख भी लग आई थी तो हमने कुछ और न देखते हुए पहले भोजन करने कि ठान ली, हम सभी IGRMS की ही कैंटीन में अपना भोजन कर रहे थे कैंटीन भी किसी हिल स्टेशन के रेसोर्ट से कम नहीं लग रही थी, खुशगबार मौसम उस पर थोड़ी थोड़ी बारिस और खुले वातावरण में लंच एक अलग ही आनंद दे रहा था |

लंच के बाद अब समय था वीथी संकुल देखने का, वीथी संकुल एक संग्रहालय जिसमे १२ गैलरी हैं जिनमे हर गैलरी में अलग - अलग संस्कृति कि अमिट छापों को संजो कर रखा गया है| १२००० वर्ग मीटर में बने इस संकुल में एक ऑडिटोरियम हॉल, एक पुस्तकालय तथा अन्य सभागार हैं | ऑडिटोरियम हॉल में २५० दर्शकों के बैठने कि व्यवस्था है | 

अब हम वीथी संकुल से निकल कर आगे बढे तटीय गावों को देखने | भोपाल की बड़ी झील के किनारे बनाये गए ये तटीय गाव देखने में बिलकुल केरल, तमिलनाडु की याद दिला रहे थे बैसे ही मातृत्व प्रधान घर , बैसी ही नोकाएं, जिनमे से सबसे ज्यादा ध्यानाकर्षण तो सर्प नोका ने किया | थोडा आगे बढे तो हम मरुस्थलीय गावों में पहुच गए, जहाँ राजस्थानी परंपरा का घर देखकर बस मन में यही आवाज़ सुने पड़ी "केसरिया बालम आवो रे , पधारो मरे देश" खैर इन सब के बाद समय था अपने भोपाल को और अच्छे से छायाचित्रों के माध्यम से जानने का सो हम पहुच गए भोपाल गैलरी, यहाँ चित्रों के माध्यम से हमने भोपाल को और करीब से जाना| 
भोपाल गैलरी के बाद समय था, मानव संग्रहालय को विडिओ के माध्यम से documentary के रूप में देखने का| इस documentary के बाद एक और documentary देखने मिली जिसका नाम था "मैन इन सर्च ऑफ़ मैन" | एक ऐसा चलचित्र जिसके माध्यम से अंदमान निकोबार द्वीप समूहों में रहने वाले आदिवासीय जनजातियों के रहन सहन जीवन शैली के बारे में जानने का मौका मिला, वहीं हमारी मुलाकात श्री अशोक शर्मा जी से हुई जो संग्रहालय समिति सदस्य हैं |  

अब समय था एक नृत्य नाटिका देखने का जिसे देखने हमारे साथ शहर के कई प्रबुद्ध जन भी उपस्थित थे | सच ऐसी नृत्य नाटिका का प्रदर्शन वीथी संकुल के ऑडिटोरियम में हुआ जिसे देख कर मन में देश भक्ति कि भावना को पुनः जाग्रत कर दिया | यूँ तो हम देश भक्त हैं पर कहीं हम अपनी रोजमर्रा की जिंदगी उन देशभक्तों को भूलने लगे हैं | खैर हम बात कर रहे थे नृत्य नाटिका की, पहली नर्त्य नाटिका श्रीमद भगवद गीता के कृष्ण-अर्जुन वृत्तान्त पर थी और दूसरी जिसने सभी को मंत्र मुग्ध कर दिया वह थी "खूब लड़ी मर्दानी" जिसे कीर्ति  बैले एंड परफोर्मिंग आर्ट्स द्वारा प्रस्तुत किया गया | 

इन सब के बीच हमें ये ध्यान ही नहीं रहा की रात हो चुकी है और सभी को घर भी जाना है, अब हमारी आज की यात्रा आखिरी पड़ाव पर थी, सभी ने जितना आनंद और शिक्षा आज इस संग्रहालय से ली जाहिर है कि ये आनंद और शिक्षा जीवन के किसी न किसी मोड़ पर हमारे काम आने वाली हैं | 
आज पहली बार मुझे ऐसा लगा जैसे सभी सरे दिन के थके होने के बाद भी स्फूर्तिमंद थे | आज मौसम ने भी हमारा खूब साथ दिया | 
अंत में हम IGRMS से दोबारा आने की इच्छा लिए अपने अपने गंतव्य की और रवाना हो गए..................